दंतेवाड़ा का ऐतिहासिक फागुन मड़ई

अंजोर
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बस्तर की धरती पर हर साल होली के बाद एक विशेष और ऐतिहासिक उत्सव मनाया जाता है, जिसे फागुन मड़ई कहा जाता है। यह आयोजन बस्तर के राजवंश की अधिष्ठात्री देवी, दंतेश्वरी देवी के सम्मान में आयोजित होता है। जैसा कि बस्तर के प्रसिद्ध दशहरा में राजपरिवार और जनसामान्य के बीच सामंजस्य और सहयोग का अद्भुत दृश्य देखने को मिलता है, वैसे ही फागुन मड़ई भी एक ऐसा महोत्सव है, जो पूरी बस्तर की सांस्कृतिक समृद्धि और विविधता को उजागर करता है।

फागुन मड़ई का यह उत्सव फागुन शुक्ल की षष्ठी से लेकर चौदस तक मनाया जाता है, और इस दौरान बस्तर के आदिवासी और गैर-आदिवासी समुदाय एक साथ मिलकर देवी की पूजा-अर्चना करते हैं। इस उत्सव का आयोजन न केवल धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा है, बल्कि यह बस्तर की साझा विरासत को भी दर्शाता है, जिसमें आदिवासी और गैर आदिवासी विश्वासों, रीति-रिवाजों और परंपराओं का संगम होता है।

यह महोत्सव एक जीवंत उदाहरण है, जहां राजवंश, आदिवासी समुदाय, और गैर आदिवासी लोग एक मंच पर आते हैं, और उनके देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना और सहभागिता एक सामान्य दृश्य बन जाती है। बस्तर की संस्कृति में इस तरह के सामूहिक उत्सवों की एक लंबी परंपरा रही है, जहां सभी समुदाय मिलकर सामाजिक सौहार्द्र और आपसी समझ को मजबूत करते हैं। फागुन मड़ई सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह बस्तर के विभिन्न समुदायों के बीच रिश्तों, एकता और साझा विश्वासों का प्रतीक भी है।

बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी के मंदिर में हर वर्ष बसंत पंचमी से शुरू होने वाली फागुन मड़ई एक 600 वर्ष पुरानी परंपरा का हिस्सा है। यह 11 दिन तक चलने वाला महापर्व बस्तर और आसपास के क्षेत्रों की धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर को जीवित रखता है।

इस महोत्सव में छत्तीसगढ़ के साथ-साथ ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के 800 से अधिक देवी-देवता सम्मिलित होते हैं, जो अपनी उपस्थिति से इस महान उत्सव को और भी भव्य बना देते हैं। मड़ई की शुरुआत से लेकर समापन तक यह पर्व न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि क्षेत्रीय एकता और सांस्कृतिक मेलजोल का भी एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत करता है।

फागुन मड़ई के प्रमुख अनुष्ठान और उनकी प्रक्रिया



बसंत पंचमी के दिन, बस्तर के धार्मिक उत्सव की शुरुआत होती है, जब दंतेश्वरी मंदिर के मुख्य द्वार पर एक अष्टधातु से निर्मित त्रिशूल स्तंभ की प्रतिष्ठापना की जाती है। यह प्रतीकात्मक रूप से धार्मिक शक्ति और शौर्य का प्रतीक है, जिसे स्थापना के साथ ही एक पवित्र वातावरण का निर्माण होता है। उसी दिन दोपहर को आमा मऊड रस्म का आयोजन किया जाता है, जिसमें दंतेश्वरी देवी का छत्र नगर में दर्शन के लिए निकाला जाता है। इस दौरान देवी को आम के बौर अर्पित किए जाते हैं, और पूरे नगर में उत्सव का माहौल होता है।

इसके बाद, फागुन मड़ई के कार्यक्रमों की शुरुआत मेंडका डोबरा मैदान स्थित देवकोठी से होती है। यहाँ प्रातः समय में दंतेश्वरी देवी का छत्र लाया जाता है और उसे श्रद्धा से सलामी दी जाती है। मंदिर के पुजारी इस अवसर पर दीप प्रज्ज्वलित करते हैं और कलश की स्थापना करते हैं, जो पूरे आयोजन की शुद्धता और समृद्धि का प्रतीक होता है।

एक और महत्वपूर्ण रस्म है भंडारीन फूल से फूलपागा (पगड़ी) बांधने की, जो पटेल द्वारा पुजारी के सिर में बांधी जाती है। इस रस्म से पवित्रता और देवी की कृपा का आशीर्वाद मिलते हुए पूरे अनुष्ठान को एक आधिकारिक स्वरूप मिलता है।

इसके बाद, दंतेश्वरी देवी की पालकी को नारायण मंदिर के लिए परिभ्रमण के लिए निकाला जाता है। इस पालकी के साथ देवी के प्रतीक, देवध्वज, और छत्र होते हैं। पूजा-अर्चना और विश्राम के बाद सभी देवी-देवताओं की पालकी को वापस दंतेश्वरी मंदिर लाया जाता है।

रात का समय करीब आठ बजे होता है, जब ताड-फलंगा धोनी की रस्म अदा की जाती है। इस रस्म के दौरान, ताड के पत्तों को दंतेश्वरी तालाब के जल से धोकर मंदिर में रखा जाता है। इन पत्तों का उपयोग होलिका दहन में किया जाता है, और यह प्रक्रिया धार्मिक महत्व रखती है, जिसमें जल, मिट्टी और ताड़ के पत्तों की पवित्रता का मिलाजुला संकेत होता है। इन सभी अनुष्ठानों और रस्मों के माध्यम से फागुन मड़ई न केवल एक धार्मिक आयोजन बन जाता है, बल्कि यह बस्तर की संस्कृति, विश्वासों और परंपराओं का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करता है।

600 साल पुराना त्रिशूल मां दंतेश्वरी के आदिशक्ति स्वरूप का प्रतीक

दंतेश्वरी मंदिर परिसर में स्थापित तांबे का त्रिशूल एक ऐतिहासिक धरोहर के रूप में अति महत्वपूर्ण माना जाता है। यह त्रिशूल लगभग 600 वर्षों पुराना है और इसे विशेष रूप से मां दंतेश्वरी के आदिशक्ति स्वरूप के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है। त्रिशूल का निर्माण शुद्ध तांबे से हुआ है और इसे मंदिर के गरूड़ स्तंभ के समक्ष प्रतिष्ठित किया जाता है, जहाँ मांईजी का सरस्वती के रूप में पूजन होता है।

इतिहास से पता चलता है कि राजा पुरषोत्तम देव ने इसे वारंगल से लाकर दंतेश्वरी मंदिर में स्थापित किया था। पुजारी हरेंद्रनाथ जिया के अनुसार, प्रतिवर्ष वसंत पंचमी पर त्रिशूल का विशेष रूप से वैदिक मंत्रोचारण के साथ पूजन किया जाता है। इस त्रिशूल की स्थापना के साथ ही दक्षिण बस्तर के प्रसिद्ध फागुन मड़ई महोत्सव की शुरुआत होती है।

मेला समाप्त होने के बाद, देवी-देवताओं की विदाई के दूसरे दिन इस त्रिशूल को पुनः मंदिर में स्थापित किया जाता है, इस प्रकार यह एक ऐतिहासिक और धार्मिक परंपरा का हिस्सा बन चुका है। त्रिशूल की यह स्थापन प्रक्रिया न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि यह बस्तर की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और मां दंतेश्वरी के प्रति श्रद्धा को भी दर्शाती है।

दंतेश्वरी देवी के प्रति श्रद्धा और राजपरिवार की भूमिका

बस्तर के धार्मिक और सांस्कृतिक उत्सव फागुन मड़ई में एक महत्वपूर्ण परंपरा है, जिसमें राजपरिवार के उत्तराधिकारी को दंतेश्वरी देवी का प्रथम पुजारी माना जाता है। यह परंपरा बस्तर के राजवंश से जुड़ी एक लंबी और महत्वपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर है। हालांकि, अधिकांश समय यह जिम्मेदारी प्रधान पुजारी के पास होती है, लेकिन कभी-कभी राजा भी इस धार्मिक अनुष्ठान में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं।

जब राजा इस आयोजन का हिस्सा बनते हैं, तो नगर के जयस्तम्भ के पास से सेवादारों द्वारा उनका स्वागत इस प्रकार किया जाता है कि यह दृश्य देखने वालों को मानो राजतंत्र पुनः जीवित हो उठा हो। यह दृश्य बहुत ही विशेष होता है, क्योंकि इसमें राजा के साथ धार्मिक और सांस्कृतिक कर्तव्यों का पालन होता है, जिससे यह आयोजन और भी महत्व प्राप्त करता है।

राजा इस स्वागत के बाद दंतेश्वरी देवी के दर्शन के लिए पहुंचते हैं और फागुन मड़ई के अन्य धार्मिक रस्मों में सक्रिय रूप से शामिल होते हैं। इस प्रकार, राजा की उपस्थिति उत्सव में एक विशेष ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आयाम जोड़ देती है, जिससे यह केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि एक सामूहिक सामाजिक और सांस्कृतिक आयोजन बन जाता है।

फागुन मड़ई के आयोजन की यह श्रृंखला बहुत ही व्यवस्थित और महत्वपूर्ण होती है। पर्व के दूसरे दिन खोर खुंदनी रस्म होती है, जिसमें पुनः दंतेश्वरी की डोली निकाली जाती है। यह रस्म एक नई शुरुआत का प्रतीक होती है और इसमें देवी के आशीर्वाद के लिए नगरवासियों का समागम होता है। पर्व के तीसरे दिन नाच मांडनी का आयोजन होता है, जिसमें मांदर और नगाड़े की थाप पर सेवादार दंतेश्वरी देवी के सामने नृत्य प्रदर्शन करते हैं। इस नृत्य में न केवल धार्मिक श्रद्धा, बल्कि बस्तर की सांस्कृतिक समृद्धि का भी प्रतीक है।

इन रस्मों के माध्यम से फागुन मड़ई केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह बस्तर की सांस्कृतिक धरोहर का जश्न भी है, जिसमें राजपरिवार, आदिवासी समुदाय, और जनसामान्य सभी मिलकर एकता और समृद्धि की भावना को मजबूत करते हैं।

दंतेश्वरी के सामने नृत्य प्रदर्शन और आखेट नृत्य की परंपरा

फागुन मड़ई के दौरान, दंतेश्वरी देवी के सामने नृत्य प्रदर्शन की एक लंबी और अनूठी परंपरा का निर्वहन किया जाता है, जो अगले चार दिनों तक जारी रहता है। इस समय के दौरान, आखेट नृत्यों की विशेष परंपराएं प्रस्तुत की जाती हैं, जिनमें लम्हामार, कोडरीमार, चीतलमार और गंवरमार प्रमुख हैं। यह सभी नृत्य खरगोश, कोतरी, चीतल और गौर के शिकार पर आधारित होते हैं, और हर एक नृत्य अपनी विशिष्ट शैली और सांस्कृतिक गहराई के कारण अद्वितीय होता है।

इन नृत्यों में जानवरों का स्वांग रचा जाता है, और इसके लिए तूम्बे से बने मुखौटे का उपयोग किया जाता है। यह मुखौटे न केवल नृत्य के प्रदर्शन को और जीवंत बनाते हैं, बल्कि दर्शकों को शिकार के माहौल में डुबोने का काम भी करते हैं। इन नृत्यों में गंवरमार सबसे लोकप्रिय माना जाता है, जिसे देखने के लिए भारी संख्या में लोग इकट्ठा होते हैं।

गंवरमार नृत्य में गंवर (वन भैंसा) का प्रतीकात्मक शिकार किया जाता है। इस नृत्य में एक व्यक्ति गंवर का रूप धारण करता है और शिकार के माहौल को इस प्रकार से बनाता है कि दर्शक उसे पूरी तरह से महसूस कर सकें। इसके बाद, शिकार को पकड़ने के लिए हाका लगाया जाता है और गंवर को घेर लिया जाता है। स्वांग के अनुसार, गंवर शिकार से बचने के लिए छिप जाता है, और फिर एक सयान के इशारे पर, जिसे देवी की कृपा प्राप्त होती है, गंवर को ढूंढ लिया जाता है। इस प्रकार, मंदिर के पुजारी द्वारा फायर कर गंवर का प्रतीकात्मक शिकार किया जाता है।

इन नृत्यों का न केवल धार्मिक महत्व है, बल्कि ये बस्तर की आदिवासी संस्कृति और उनके शिकार परंपराओं का जीवंत उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं। आखेट नृत्य आदिवासी समाज का अभिन्न हिस्सा है और फागुन मड़ई के दौरान इनका प्रदर्शन बस्तर के सांस्कृतिक उत्सवों का एक प्रमुख आकर्षण होता है। पूरी रात चलने वाले इन नृत्यों को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग उपस्थित होते हैं, जो इन नृत्यों के माध्यम से बस्तर की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को महसूस करते हैं।

आंवरामार की रस्म

गंवरमार की प्रथा के दूसरे दिन, जिसे त्रयोदशी कहा जाता है, फागुन मड़ई उत्सव का एक और महत्वपूर्ण आयोजन होता है - आंवरामार। यह दिन विशेष रूप से श्रद्धा और उल्लास का होता है। इस दिन दंतेश्वरी मंदिर के प्रधान पुजारी को मांईजी के छत्र के साथ पालकी में बिठाकर नगर की सैर कराई जाती है। इस परिभ्रमण के दौरान, छत्र और देवी-देवताओं के प्रतीकों के साथ, देवलाट (देवी-देवताओं के प्रतीक), बड़ी संख्या में लोग और ग्रामीण भी एक साथ चलते हैं। यह दृश्य अत्यंत भव्य और आध्यात्मिक होता है, जहां राजपरिवार, पुजारी, और ग्रामीण मिलकर इस यात्रा में शामिल होते हैं, और यह परंपरा बस्तर की एकता को दर्शाती है।

इसके बाद, मुख्य आयोजन आंवरामार की रस्म होती है। इस दिन, दंतेश्वरी देवी की पालकी में पहले आंवला फल अर्पित किया जाता है। आंवला, जो स्वास्थ्य और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है, पूजा के दौरान विशेष रूप से चढ़ाया जाता है। इसके पश्चात, पुजारी, सेवादार, बारह-लंकवार, और जनसामान्य दो समूहों में बंटकर एक-दूसरे पर आंवले से प्रहार करते हैं। यह रस्म न केवल आनंद और उल्लास का प्रतीक है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक आस्था भी व्यक्त करती है।

आंवरामार का यह आयोजन बस्तर की परंपराओं का एक अहम हिस्सा है, जहां आंवला फल की मार से यह विश्वास जुड़ा हुआ है कि यह व्यक्ति को स्वास्थ्य और समृद्धि प्रदान करेगा, और इस रस्म के माध्यम से उत्सव का माहौल और भी उल्लासमय हो जाता है।

आंवरामार की रस्म और होलिका दहन की अनूठी परंपरा

आंवरामार की रस्म एक अनूठी धार्मिक परंपरा है, जिसमें विश्वास किया जाता है कि इस दिन चढ़ाए गए आंवला फल की मार यदि किसी व्यक्ति के शरीर पर पड़ती है, तो वह पूरे वर्ष निरोगी और स्वस्थ रहेगा। इस विश्वास को लेकर लोग इस रस्म को बड़े श्रद्धा भाव से अदा करते हैं।

इसके बाद, दूसरे दिन, परंपरागत रूप से ताड़ के पत्तों से होलिका दहन किया जाता है। लेकिन दंतेवाड़ा में होलिका दहन की एक अनोखी कहानी जुड़ी हुई है, जो होलिका से नहीं, बल्कि एक वीर राजकुमारी की शहादत से संबंधित है। इस राजकुमारी ने अपने राज्य और परिवार की सुरक्षा के लिए अपनी जान दी थी, और इसके कारण दंतेवाड़ा में स्थित सति शिला को उसकी याद में स्थापित किया गया है। यह शिला आज भी श्रद्धा के साथ पूजी जाती है और उसकी शहादत को सम्मानित किया जाता है।

सति शिला के पास ही, ताड़ के पत्तों से होलिका दहन की परंपरा निभाई जाती है। यहाँ, इस विशेष अवसर पर उस आक्रमणकारी को गाली दी जाती है, जिसने राजकुमारी को आत्मदाह करने के लिए मजबूर किया। यह सांस्कृतिक क्रिया उस आक्रमणकारी के खिलाफ गुस्से और अपमान का प्रतीक है, साथ ही राजकुमारी की वीरता और बलिदान को सम्मानित करने का एक तरीका भी है।

यह दंतेवाड़ा की विशेषता है कि यहाँ के धार्मिक अनुष्ठान न केवल आस्था से जुड़े होते हैं, बल्कि इनमें स्थानीय इतिहास और संस्कृति भी गहरे रूप से समाहित होते हैं। इस तरह, आंवरामार की रस्म और होलिका दहन न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि यह स्थानीय जनता की सांस्कृतिक धरोहर और उनकी वीर गाथाओं का भी प्रतीक है।

होलिका दहन और रंगोत्सव की परंपरा

होली के पर्व पर दंतेवाड़ा में एक विशेष प्रकार से रंगोत्सव मनाया जाता है, जिसमें राजकुमारी की याद में जलाए गए होलिका की राख का उपयोग किया जाता है। यह राख, साथ ही दंतेश्वरी मंदिर की मिट्टी से एक अद्भुत रंग उत्सव की शुरुआत होती है। होली के दिन एक व्यक्ति को फूलों से सजाकर होलिभांठा तक पहुंचाया जाता है, जिसे स्थानीय लोग लाला के नाम से पुकारते हैं। इस समय माईजी के आमंत्रित देवी-देवताओं के साथ होली खेलने का आयोजन होता है, जो इसे एक भव्य और आध्यात्मिक उत्सव बना देता है।

इसके बाद, पुजारी और सेवादार देवी-देवताओं के साथ सति-शिला स्थल से होलिका दहन की राख लेकर, मेंढका डोबरा मैदान स्थित मावली गुड़ी तक पहुंचते हैं। यहाँ, एक और महत्वपूर्ण रस्म रंगभंग का आयोजन होता है, जो होली के बाद के उल्लास को और भी बढ़ाता है। इस रस्म के बाद, शंकनी-डंकनी नदी के संगम पर पादुका पूजन किया जाता है।

इस दौरान, उपस्थित समुदाय पर अभिमंत्रित जल छिड़ककर उनका शुद्धिकरण किया जाता है, ताकि मेले के दौरान किसी भी तरह के अपकार या नकारात्मक प्रभाव से उनके शरीर को मुक्त किया जा सके। यह मान्यता है कि इस क्रिया से शरीर की शुद्धि होती है और व्यक्तित्व में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।

अंत में, आमंत्रित देवी-देवताओं की विदाई के साथ ही दक्षिण बस्तर का प्रसिद्ध फागुन मंडई महोत्सव समाप्त होता है, जो एक ओर वर्षभर की खुशहाली और समृद्धि की कामना के साथ समापन करता है। यह उत्सव न केवल धार्मिकता और लोक परंपराओं का मिश्रण है, बल्कि यहाँ के लोगों की आस्था और सांस्कृतिक धरोहर का भी प्रतीक है।

उपसंहार

दंतेवाड़ा का फागुन मड़ई महोत्सव बस्तर की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और धार्मिक परंपराओं का अद्वितीय प्रतीक है। यह उत्सव न केवल बस्तर की धार्मिक आस्थाओं को उजागर करता है, बल्कि विभिन्न समुदायों के बीच सहयोग, एकता और सांस्कृतिक विविधता का भी आदान-प्रदान करता है। फागुन मड़ई में राजपरिवार की सहभागिता, आदिवासी नृत्य परंपराएं, आंवरामार की रस्म, और होलिका दहन जैसी क्रियाएं न केवल धार्मिक महत्व रखती हैं, बल्कि यह बस्तर की प्राचीन परंपराओं और इतिहास से भी गहरी रूप से जुड़ी हुई हैं।

यह महोत्सव बस्तर के लोगों के लिए एक सामूहिक उत्सव है, जो अपने आप में सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समृद्धि की एक मिसाल पेश करता है। इसमें सभी समुदाय एक साथ मिलकर न केवल देवी-देवताओं की पूजा करते हैं, बल्कि अपने साझा विश्वासों और सांस्कृतिक धरोहरों को भी सम्मानित करते हैं। इस प्रकार, फागुन मड़ई महोत्सव बस्तर के लिए एक महत्वपूर्ण धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक आयोजन है, जो हर वर्ष बस्तर की संस्कृति, आस्था और परंपराओं को जीवित रखता है और इसे आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित करता है।

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सबो पाठक ल जोहार..,
हमर बेवसाइट म ठेठ छत्तीसगढ़ी के बजाए रइपुरिहा भासा के उपयोग करे हाबन, जेकर ल आन मन तको हमर भाखा ल आसानी ले समझ सके...
छत्तीसगढ़ी म समाचार परोसे के ये उदीम कइसे लागिस, अपन बिचार जरूर लिखव।
महतारी भाखा के सम्मान म- पढ़बो, लिखबो, बोलबो अउ बगराबोन छत्तीसगढ़ी।

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